Tuesday 10 February 2015

"जंगल में पागल हाथी और ढ़ोल " तथा "नदी स्त्री है " : परिकथा में प्रकाशित दो अन्य कवितायें

परिकथा के जनवरी-फरवरी 2015 के अंक में प्रकाशित मेरी दो कवितायें ::::: 
जंगल मे पागल हाथी और ढ़ोल 
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पेट भर रोटी के नाम पर 
छिन ली गयी हमसे 
हमारे पुरखों की जमीन 
कहा जमीन बंजर है. 

शिक्षा के नाम पर 
छिन लिया गया हमसे 
हमारा धर्म 
कहा धर्म खराब है . 

आधुनिकता के नाम पर 
छिन ली गयी हमसे 
हमारी हजारों साल की सभ्यता 
कहा हमारी सभ्यता पिछड़ी है 

अपने जमीन, धर्म और सभ्यता से हीन,  
जड़ से उखड़े, 
हम ताकते हैं आकाश की ओर 
गड्ढे मे फंसे सूंढ उठाए हाथी की तरह ।
  
जंगल से पागल हथियों को 
भगाने के लिए 
बजाए जा रहे हैं ढ़ोल ।
.......... 
नीरज कुमार नीर 
14/09/2014 
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नदी स्त्री है
..........
नदी होती है
पावन , स्वच्छ , निर्मल .
हम उड़ेलते उसमे अपना कलुष.
नदी समाहित कर लेती है
सब कुछ
अपने अन्दर
और कर देती है उसे
स्वच्छ, निर्मल, पावन. 
नदी स्त्री है.
.. नीरज कुमार नीर
#NEERAJ_KUMAR_NEER 

5 comments:

  1. सुन्दर अभिव्यक्ति भावपूर्ण वास्तविकता आत्म संस्कृति से संबद्ध रचना! बहुत -बहुत बधाइयों के साथ!!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-02-2015) को चर्चा मंच 1886 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  4. क्या बात है नीरज जी! बहुत खूब।

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.

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