Friday 22 March 2013

मैं बाहर थी


जब तुम बुझा रहे थे अपनी आग,
मै जल रही थी.
मैं जल रही थी  पेट की भूख से
मैं जल रही थी माँ की बीमारी के भय से
मैं जल रही थी बच्चों की स्कूल फीस की चिंता से .
जब तुम बुझा रहे थे अपनी आग,
मै जल रही थी.
*******
मैं बाहर  थी
जब तुम अंदर थे। 
मैं बाहर  थी
हलवाई की दुकान पर
पेट की जलन मिटाने के  लिए
रोटियां खरीदती हुई.
मैं बाहर  थी ,
दवा की दुकान पर
अपनी अम्मा के लिए
जिंदगी खरीदती हुई .
मैं बाहर थी
बच्चों के स्कूल में
फीस जमा करती हुई .
मैं बाहर थी
जब तुम अंदर थे
अभिसार की उत्तेजना से मुक्त.
अपनी नग्नता से बेखबर
मैं बाहर थी !!!!
................. नीरज कुमार ‘नीर’
#neeraj_kumar_neer


5 comments:

  1. बहुत ही सुंदर यथार्थ पूर्ण रचना,,,बधाई नीरज जी,,,

    होली की हार्दिक शुभकामनायें!
    Recent post: रंगों के दोहे ,

    ReplyDelete
  2. वक़्त कौन कौन सी परिस्थियों से हमें गुजरने को मजबूर करती है. अपनी तृप्ति के सामने दूसरी तरफ का दर्द कहाँ देख पाते हैं. साहिर ने बिलकुल ठीक ही लिखा था-

    जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है
    जो साज़ पे गुजरी है वो किसको पता है

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर ...नीरज जी ..
    पधारें " चाँद से करती हूँ बातें "

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...