Sunday 15 January 2012

इंतज़ार

मुद्दतों से हम जिनका इंतज़ार करते रहे
वो न आए हम, जिनसे प्यार करते रहे .
उम्र गुजर गयी मुहब्बत के भरम में
वो करते हैं प्यार हम , ऐतबार करते रहे .
साये तुम्हारी जुल्फ के ,ढँक दे ना आफताब
दिन में ना रात हो जाये, इस बात से डरते रहे .
तुमसे भी खूबसूरत तुम्हारा ख्याल था,
संग ख्यालों के हम, बसर करते रहे .
तुझे  चाहा  और कुछ ना चाहा  मैंने
खता इतनी हुई ,कहने से डरते रहे .
बाद मरने के मेरे, जो आओ मजार पर
फिर से ना जिन्दा हो जाऊं, इस बात से डरते रहे.
मुद्दतों से हम जिनका इंतज़ार करते रहे
वो न आए हम, जिनसे प्यार करते रहे .
neeraj kumar neer 

Saturday 14 January 2012

गुजरा ज़माना


यह कविता सरिता के जून २०१२ द्वितीयार्द्ध में प्रकाशित हुई थी 

साँवली सुन्दर सलोनी सी लड़की 


नीम दरख़्त के पीछे की खिड़की

आम की शाखें और बरगद की डाली

नीम के पत्ते और मिटटी की प्याली 

बहुत याद आता है गुजरा ज़माना

उसकी गली के चक्कर लगाना 

सीने से पुस्तक लगाके वो चलना 

गली के मोड़ पे जा के पलटना 

देख के मुझको तेरा मुस्काना 

दातों से अपने होठों को दबाना

दुपट्टे के छोर में अंगुली फिराना

चुपके से मेरे ख्यालों में आना 

बहुत याद आता है गुजरा ज़माना

उसकी गली के चक्कर लगाना 

भरी दुपहरी में छत पे वो आना

भिंगोकर बालों को फिर से सुखाना

बाल बनाने को खिड़की पे आना 

करूँ जो इशारे तो मुंह का बनाना 

बहुत याद आता है गुजरा ज़माना

उसकी गली के चक्कर लगाना 

चाँदनी रात में बागों में जाना 

छुप छुप के तेरा मिलने को आना

पूनम की रात में तारों का गिनना 

बंद करके ऑंखें तेरी बातें सुनना 

बहुत याद आता है गुजरा ज़माना

उसकी गली के चक्कर लगाना
... नीरज कुमार 'नीर'

जम्हूरियत

कपड़ों को देखिये मेरा नाम न  पूछिए ,
कपडे ही अब इंसान कि पहचान बन गए .
कल तक चोर उचक्कों में नाम था जिनका,
वे ही आज कल सियासतदान बन गए.
चुपके से घुस आए थे जो मेरे घर में,
सियासत कि मेहरबानी से मेहमान बन गए.
ये जम्हूरियत कि कैसी बाजीगरी है, देखिये!
काबिल न  थे अर्दली के वे ही प्रधान बन गए.
नीरज कुमार नीर 

प्रभु तुम हो

वनों कि अमराईयों में,
सागर कि गहराइयों में,
पर्वत के उत्तुंग शिखर पर,
व्योम के विस्तीर्ण पटल पर,
प्रभु! तुम हो, तुम हो, तुम ही तुम हो .

निर्झर के नीर में,
 हर्ष में,  पीर में,
जलधी के जल में,
 हर एक पल में,
प्रभु! तुम हो , तुम हो, तुम ही तुम हो.

मीरा के गीत में ,
राधा के प्रीत में ,
जीवन की  फाँस  में ,
हर एक साँस में,
प्रभु! तुम हो , तुम हो, तुम ही तुम हो.

जीवन निष्पत्ति  में,
दुर्गम  विपत्ति में,
सफलता कि आस में,
मेरे हर प्रयास में,
प्रभु! तुम हो, तुम हो, तुम ही तुम हो.

बड़ा अच्छा लगता है



जाड़े का धूप और गोरी का रूप
बड़ा अच्छा लगता है.
पुरानी  शराब और जवानी का शवाब
बड़ा अच्छा लगता है.
चाँदनी रात और नई पत्नी का साथ
बड़ा अच्छा लगता है.
गर्मी में पानी और कमसिन जवानी
बड़ा अच्छा लगता है.
अपना लंगोटा और बुढ़ापे का बेटा
बड़ा अच्छा लगता है.
रंगीन टी वी और दूसरे की बीवी
बड़ा अच्छा लगता है.
सेंका हुआ टोस्ट और मुसीबत में दोस्त
बड़ा अच्छा लगता है.
नेता हाथ जोड़े और मुसीबत मुँह मोड़े,
बड़ा अच्छा लगता है.
पत्ती हो हरी आर जेब हो भरी,
बड़ा अच्छा लगता है.
बहता हुआ जल और बीता हुआ कल,
बड़ा अच्छा लगता है.
. सी. गाड़ी में और नारी साड़ी में
बड़ा अच्छा लगता है
फूलों में गुलाब और औरत का हिजाब
बड़ा अच्छा लगता है.
होठों पे लाली और ससुराल में हो साली,
बड़ा अच्छा लगता है.
सुशीला हो नारी और नौकरी सरकारी,
बड़ा अच्छा लगता है.
चहरे पे मूछ और साहेब करे पूछ
बड़ा अच्छा लगता है.
ऑफिस पहुचे लेट और बॉस से ना हो भेट ,
बड़ा अच्छा लगता है.
............
नीरज कुमा नीर

Wednesday 4 January 2012

बालू की भीत

कल जो था हुआ अतीत
पुराना साल गया बीत
कुछ भी चिरंजीवी नहीं
जीवन जैसे बालू की भीत .
neeraj kumar neer 

कर्तव्य

जब चुनाव होता है,
घर में छुट्टी मनाते हो .
जन सेवक काम ना करे,
तो क्यों चिल्लाते हो ?
किसी पे जुल्म होता देख,
आंख चुराते हो .
कोई तुम्हारे घर में घुसे ,
तो क्यों घबराते हो ?
जब खुद का आचार भ्रष्ट हो ,
तो मजा आता है .
जब दूसरा करता है,
क्यों शोर मचाते हो?
ये बुरी आदत है, नीरज ,
जाते - जाते जायेगी .
आदत छोड़ने में कष्ट होता है,
क्यों घबराते हो ?
neeraj kumar neer

अतिक्रमण

दीवारें ढहा दी जाती हैं 
अतिक्रमण के नाम पर 
जब किसी के घर की,
बुल्डोजर के राक्षसी पंजों तले..
मासूमो के प्लास्टिक के खिलौने 
जब कुचल दिए जाते हैं .
जब बुल्डोजर के शैतानी पहियों तले
एलुमिनियम के बर्तन
टूट कर पिचक जाते है.
जब हुकूमत के डंडे पड़ते है
ग़ुरबत की पीठ पर.
बुल्डोजर के दातों का रंग
देखो लाल हो जाता है
इनमे लगा है खून
गरीबों के दिल का.
खून के आंसू जब
रोतीं है बूढ़ी माँ.
भूख से बिलबिलाते
नन्हे मासूम जब
पेट पकड़ कर सोते हैं.
तब तान दी जाती हैं
छतरियां प्लास्टिक की.

.......... neeraj kumar neer
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